व्यंग्य: भारतीयों की आदत और डाइनिंग टेबल का महत्व

ऋषि कटियार नहीं, नहीं। मैं सॉफिस्टिकेटेड होने की ऐक्टिंग नहीं कर रहा, ना ही अमीरों जैसे रुतबा दिखाने की कोशिश कर रहा हूं और न ही मेरे 'पर' निकल आए हैं। फिर भी मुझे अक्सर यह सोच के हैरानी होती है कि लोग बिना के कैसे रहते होंगे? मलतब 'हाऊ मैन हाऊ'? (वैसे तो यह बस एक ऐक्स्प्रेशन है, पर इससे पहले लोग फेमिनिज्म के सवाल उठाएं, 'हाऊ विमेन हाऊ'? वैसे मैं बैचलर लोगों की बात नहीं कर रहा हूं क्योंकि डाइनिंग टेबल का जितना महत्त्व शादीशुदा लोगों के लिए है, उतना बैचलर्स के लिए नहीं है। क्योंकि बैचलर्स के पास डाइनिंग टेबल पाई ही नहीं जाती है। उनके लिए उनकी दुनिया उनके बिस्तर तक ही सीमित होती है। उनके कच्छे, तौलिया, कपड़े, लैपटॉप, फोन, चार्जर, मैगी का गंदा भगौना, खिचड़ी का कुकर, दालमोठ के पैकेट, चिप्स, कोल्ड ड्रिंक्स, किताबें उनके साथ ही बिस्तर पर पाई जाती हैं। अगर दुनिया बाहर खत्म भी हो जाए, तब भी एक बैचलर अपने बिस्तर पर हप्तों सर्वाइव कर जाएगा। पर शादीशुदा लोगों के लिए डाइनिंग टेबल सिर्फ एक टेबल नहीं है जिस पर खाना खाया जा सकता है। बल्कि सौ मर्जों की एक दवा है। डाइनिंग टेबल का उपयोग हमारे घर में गांव के सरकारी स्कूल की तरह होता है जो अपने मूल उद्देश्य को छोड़कर हर काम के लिए प्रयोग होती है। जरा सोचिए, बिना डाइनिंग टेबल के लोग घर का सारा सामान, जैसे बर्तन, कपड़े, गिलास, तौलिया, कुकर का ढक्कन, सब्जी का झोला, सुपरमार्केट के सामान सहित पन्नियां, खाली बोतलें, पोछे का कपड़ा, अचार-मुरब्बे के मर्तबान, चाय के जूठे कप, सब्जियों के डंठल-छिलके, बच्चों के खिलौने, डायपर पेन-पेंसिल, किताबें कहां रखते होंगे? बिना डाइनिंग टेबल की कुर्सियों के चादरें, तौलिए, तकिए के कवर कहां सुखाते होंगे? डाइनिंग टेबल एक शादीशुदा इंसान के घर का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा है। हालांकि डाइनिंग टेबल पाई वहीं जाती है जिसे 'डाइनिंग एरिया' कहा जाता है। (मुख्यत: किचन के बाहर वाली जगह या कच्चे घरों में चौके के बाहर वाला रास्ता), पर यह ध्यान से देखने पर नजर आएगी। या फिर तब जब इस पर जमा मलबा हटाकर, जिस जगह पर इसके होने का अंदेशा हो ,वहां खुदाई की जाए। डाइनिंग टेबल का मूल रंग क्या था, यह बहस का मुद्दा है। मुझे लगता है ये कि हल्के भूरे रंग की है, जबकि श्रीमती जी का दावा है कि हमने चॉकलेटी कलर की खरीदी थी और सिर्फ दो साल पहले की ये बात मैं भूल कैसे सकता हूं? दरअसल, हमने चीजों का सही इस्तेमाल कभी सीखा ही नहीं, या कहो ये सीखना या सिखाया जाना कभी हमारे सिलबस में रहा ही नहीं। शाहरुख खान की 'बादशाह' फिल्म के जैसे हम फ्रीज में कपड़े रखते हैं, बिस्तर पर खाना खाते हैं, सोफे पर सोते हैं, आउटडोर गेम्स रूम में खेलते हैं, मैदान में गेम फोन में खेलते हैं। हम स्वयं अव्यवस्थित स्थितियों में रहने के इतने अभ्यस्त हो चुके हैं कि व्यवस्था, सलीका और काम को सही तरीके से करना बहुत विचलित करने लगता है। अगर कोई हमारा सामान करीने से लगा देता है तो चीजों को ढूंढने में ही घंटों परेशान रहते हैं। और आखिर इसमें हमारी क्या गलती है, आखिर हम भी थर्मोडाइनैमिक्स के नियम से बंधे हुए हैं और एन्ट्रॉपी कोई हमारे हाथ में थोड़े ही है। और साइंस के खिलाफ काम करना ठीक भी नहीं है। है ना? फनी फोटोज: जुगाड़ करने में ये लोग हैं ज्ञानी


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